सोमवार, 26 जुलाई 2010

दीदी यह क्या झोल है?

भारतीय रेल हम भारतवासियों के जीवन का एक अहम हिस्सा है। रेल मंत्रालय ने यात्रियों की सुविधा के लिए अनेक सेवाएं शुरु तो कर दी हैं,लेकिन कई सेवाओं में खामियां ही खामियां देखने को मिलती हैं।

मसलन रेलवे ने यात्रियों को आरक्षण की सुविधा देने के लिए वेबसाइट लांच करी जिसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति कतारों में बगैर धक्के खाए घर बैठे ही अपना रेल आरक्षण करा सकता है। लेकिन इस वेबसाइट पर दी गयी सुविधा का उपयोग करके अगर कोई व्यक्ति आरक्षण करा चार्ट बनने के बाद यात्रा नहीं करता है और सोचता है कि वेबसाइट पर टीडीआर(टिकट डिपॉजिट रिसीट) सुविधा का उपयोग कर पैसा वापस मिल जायेगा तो यह उसकी भूल है।

रेलवे पहले ही भुगतान करने के लिए नब्बे दिनों का समय लेती है, उसके बाद भी वह टिकट धारक का भुगतान करने में आना-कानी करती है। अगर आपकी किस्मत अच्छी होगी तो पैसा क्रेडित कर दिया जायेगा नहीं तो भगवान ही मालिक है।

इसका जीता जागता उदाहरण हैं रेलवे के एजेंट ए पांडेय उनके द्धारा कराये गये अनेक टिकटों का भुगतान रेलवे से कई महीने बीत जाने के बाद भी नहीं हुआ है। यह तो उदाहरण भर है न जाने कितने यात्रियों का पैसा रेलवे पर बकाया है और रेलवे ही जाने यह पैसा टिकट धारक को मिल भी पाएगा या नहीं।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कहीं रेलवे की यह मुनाफा बढ़ाने की तरकीब तो नहीं। अब बताइये दीदी का यह कैसा झोल है ?

Source:Samaylive

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

रेल यात्रा या अंतिम यात्रा ?


आए दिन हो रही रेल दुर्घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। अभी ताजा सैंथिया दुर्घटना में 60 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी थी। मई में भी रेल दुर्घटना से करीब 150 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इसके पहले और कई छोटी-बड़ी रेल दुर्घटनाएं हो चुकी हैं।

अमूमन सभी दुर्घटनाओं के बाद रेल मंत्री ममता बनर्जी पहले तो शोक प्रकट करती हैं और फिर मुआवजे का ऐलान कर देती हैं। मुआवजे का ऐलान इसलिए कि कहीं उनके मंत्री पद पर कोई आंच न आ जाए। कुछ लोगों को तो आर्थिक घोषणा होने के बाद भी मुआवजा नहीं मिल पाता। वजह जो भी हो।
अब सवाल इस बात का है कि क्या मुआवजे से उन मौतों की भरपाई हो सकती है। दुर्घटना में कोई अपना पिता खो बैठता है, कोई मां तो कोई अपना दुधमुंहा बच्चा। जो भी जनहानि इस दुर्घटना के माध्यम से होती है क्या उसकी भरपाई पैसे से हो सकती है।

मुआवजा भी केवल उन चंद लोगों को ही मिलता है जो आरक्षित श्रेणी में यात्रा करते हैं। क्या उन लोगों का रिकॉर्ड रेलवे के पास रहता है जो जनरल बोगी में यात्रा करते हैं। या जो बगैर टिकट लिए यात्रा कर रहे होते हैं। लेकिन अब इसपर कई सवाल उठ खड़े होते हैं। या तो सभी का आरक्षित श्रेणी में ही यात्रा करना अनिवार्य माना जाए। या जनरल बोगी में चलने वालों का भी रिकॉर्ड होना चाहिए। अब मैं रेल मंत्री जी से एक सवाल करना चाहता हूं कि क्या जो साधारण श्रेणी में यात्रा करते हैं वो देश के नागरिक नहीं हैं ? क्या उनका देश पर कोई हक नहीं है ? और हक सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि वह गरीब हैं। देखा जाए तो देश की अधिकतर जनता रेल यात्रा पर ही निर्भर है। उसमें भी ज्यादातर लोग साधारण श्रेणी में ही चलने को मजबूर होते हैं।

इन जानलेवा दुर्घटनाओं का सिलसिला क्या कभी नहीं थमेगा ? क्या देश की जनता को कोई ऐसी सरकार या ऐसा रेल मंत्री नहीं मिलेगा जो इन दुर्घटनाओं पर लगाम लगा सके? और छाती ठोंक कर यह कह सके कि अब आप आराम से रेल सफर करिए क्योंकि रेलवे आपकी मंगलमय यात्रा के प्रति कटिबद्ध और उत्तरदायी है। यदि ऐसा संभव नहीं है तो सवाल इस बात का है कि इसको रेल यात्रा मानें या अंतिम यात्रा?

Written by Avdhesh Kumar

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

‘द बर्निंग जर्नलिस्ट पास्ट अवे’

‘द बर्निंग जर्नलिस्ट पास्ट अवे’ किसी अखबार में नहीं छपा और न ही कहीं हेडलाइन बनी। न उनका जनाजा निकाला और न ही किसी ने मातम मनाया। यहां तक की उनकी मौत पर शोकसभा भी आयोजित नहीं की गयी, पर मैंने उन्हें मरते हुए करीब से देखा।

बात 9वें दशक की है, तब मैं कॉलेज में थी, या पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थी। ठीक से मुझे याद नहीं। अखबार पढ़ती थी, खबरों को समझती थी और पत्रकारों को बड़ा सम्मान करती थी। मेरे पिता भी पत्रकारों के बड़े मुरीद थे। साहित्य की छात्रा होने की वजह से साहित्यक गोष्ठियों में जाया करती थी। उन्हीं दिनों एक समारोह में मैंने उन्हें देखा। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। कपड़े भी शानदार थे। पता चला शहर में हाथों-हाथ बिकने वाला सांध्य दैनिक के संपादक हैं।

अखबार के नाम के साथ-साथ उनका भी बड़ा नाम था। उन्होंने कई बड़े स्कैंडल का खुलासा किया था। लोग कहते थे, उनकी कलम में ताकत भी है और सच कहने की कुव्वत भी। मुझ नाचीज से उनका किसी ने परिचय नहीं कराया।

मैंने सोचा पत्रकारों को बड़ा सम्मान मिलता है। मैं पत्रकार बनूंगी और अगर न बन सकी तो पत्रकार से ही शादी करुंगी। मैं ये दोनों सपने वर्षों तक देखती रही। पत्रकार बनने का मतलब मेरे लिए हिमालय की चोटी पर चढ़ने जैसा ही था। किसी स्कूल में टीचर बन जाऊं तो लोग कबूल भी कर लेंगे। पत्रकार बनने का मतलब…खैर बाद में उनके अखबार में मेरे कई लेख छपे, पर मैं संपादक जी से कभी मिलने नहीं गयी। सुना संपादक जी का तबादला हो गया, वो दिल्ली चले गये।

जब मैं दिल्ली आई तो किसी परिचित ने मेरा उनसे परिचय करवाया। मेरे लिए दिल्ली एक दम अजनबी थी। हर जगह जाने के लिए मैं पहले आईएसबीटी या आईटीओ जाती और फिर वहां से बस लेकर दूसरी जगह। शायद किसी ने यह बताया था हर जगह की बस इन्हीं दोनों जगह से जाती है। संपादक जी के घर के बगल में पटना के कई लोग रहते थे। उनलोगों ने मेरे लिए भी वहीं कमरा ढूंढ दिया।

संपादक जी सूट-बूट टाई पहने लंबी गाड़ी से दफ्तर जाते। गाड़ी उन्हें छोड़ने आती। यहां भी उन्हें मैंने बड़ी शान-शौकत में देखा। पास में होने और उनके व्यवहार की वजह से उन्हें सर और उनकी पत्नी को भाभी जी कहती थी। उनकी दो बेटियां बुआ और बड़ी बेटी दीदी कहती थी। मेरी मां उनकी पत्नी के साथ छत पर बैठकर स्वेटर बुना करती थी और मैं उनसे लेख और खबरों पर सलाह मशवरा। तभी पता चला उनके चार बच्चे थे। तीन बेटियां और एक बेटा। उनकी दुश्मनी का खामिजा उनके बेटे को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

कुछ दिन बाद ही पता चला अखबार बंद हो गया। अखबार के दफ्तर के खिड़की-दरवाजे तोड़ दिये गये। शायद लोगों ने आग भी लगा दी थी। अखबार का मालिक जेल भेज दिया गया। संपादक जी बेरोजगार हो गये। उनका सारा तेल-फूलेल खत्म हो गया। घर में रखा धरा सब चुक गया। विदेशी शराब ठर्रे में बदल गयी। गाड़ी से आने जाने वाले संपादक जी सड़क पर गिरते-लड़खड़ाते नजर आने लगे। घर की हालत को देखकर उनकी बड़ी बेटी ने एक पार्लर में काम करना शुरू किया, लेकिन दो-चार दिन बाद ही पता चला पार्लर की आड में वहां कुछ और ही चल रहा था। लड़की डरी सहमी घर में कैद हो गयी। पूरा परिवार एक वक्त की रोटी के लिए मोहताज था। कुछ दिनों बाद उनका कुनबा कहीं और चला गया। शायद पटना या किसी दूसरे शहर, जहां उनका पूरा परिवार रहता था।

उसके बाद उनका नाम मैंने किसी अखबार में नहीं देखा और न ही उनका लिखा कुछ पढ़ा। पता चला अपने परिवार की परवरिश के लिए उन्हें अपनी कलम गिरवी रखनी पड़ी। यहां-वहां छोटे पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी करते रहे और लाला के कहे लिखते-छापते रहे। अब उनका परिवार कहां है, मुझे पता नहीं?

मुझे लगा एक पत्रकार को जिन्दा रहने के लिए महज कलम की ही नहीं दौलत की भी जरूरत है। खुशवंत सिंह की तरह बहुत कम ही खुशनसीब पत्रकार-साहित्यकार होते हैं, जिन्हें लाला की दुकान पर नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ती है। जब किसी पत्रकार को नौकरी से निकाला जाता है और उसे जीविका के लिए अपनी कलम रखने पड़ती है, तब पत्रकार अपनी मौत का दंश खुद झेलता है। मैंने ऐसे कई पत्रकारों को मरते ही नहीं कत्ल होते देखा है। इन्हें अपने कद के हिसाब से लाइजनिंग या कोई और पेशा अपना पड़ता है। लिखूं तो एक लंबी फेहरिस्त बन जायेगी। जिनकी कलम में ताकत नहीं होती और न ही पॉकेट में इस्तीफा , वो तथाकथित पत्रकार ही हैं। ऐसे पत्रकारों को जिन्हें हर पल इस्तीफा ले लेने का खौफ सताता है, जिनकी कलम मजबूत नहीं होती, उन्हें अपना विचार व्यक्त करने का हक भी नहीं मिलता।

मुझे चिंता पत्रकार की मौत या कत्ल की नहीं बल्कि चौथे स्तंभ की है। आखिर लोकतंत्र का कमजोर होता यह खंभा कब तक जिन्दा रह पायेगा।
Wriiten By अनिता कर्ण सिन्हा

सचिन की आत्मकथा का खूनी खेल


अरे, ये क्या सुन रहा हूँ. तुरंत तो विश्वास भी नहीं होता लेकिन इतने सारे खबरिया चैनल इसी पर चिल्ल-पों करते नज़र आ रहे हैं कि अब विश्वास के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है. और ये लो… साक्षात आप खुद भी सामने आ गए. घोषणा करते हुए. आपकी तबीयत तो ठीक है न… ये क्या पागलपन है सचिन.

अच्छा-खासा ब्रेक लेकर और इलाज कराकर फिर से फिट हुए हो. पर इस घोषणा से तो एकदम नहीं लगता. किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाओ. अपने बल्ले से रनों की धारा बहाते थे तो कितनी तारीफ होती थी, वाहवाही मिलती थी पर तुम्हारे जैसे मृदुभाषी के मुंह से खून बहाने की बातें विचलित करती हैं. डरावनी लगती हैं.

जिन हाथों ने खेल भावना को एक आयाम दिया वो हाथ अब खून के हस्ताक्षर करेंगे. जिस मुंह पर भोलेपन के भाव किसी विरोधी टीम के आक्रामक खिलाड़ी को भी रिझा लेते थे, उस भोले-भाले सचिन की खूनी हस्ताक्षर वाली आत्मकथा अब लोगों की धारणा बदलेगी. जो व्यक्ति सदा यह समझाता रहा कि क्रिकेट खेल है और इसे खेल की तरह देखिए, सियासी पैतरे, कूटनीति, धर्म, देश की नज़र से नहीं, उसी व्यक्तित्व की अपनी कहानी खून के रंग में रंगी-पुती होगी. इसे कैसे सही ठहराया जा सकता है मास्टर ब्लास्टर.

आप तो कम से कम ऐसे नहीं हैं जिसे ख़बरों में रहने के लिए या अपनी किताब बेचने के लिए इस तरह का नाटक रचना पड़े. खून ही बहाना है तो और कीर्तिमान खड़े करते हुए बहाइए, भारत में खेलों की बदतर स्थिति पर बहाइए, और जी करे तो देश-समाज की सेवा में बहा दीजिए… किताब पर खून बहाने का क्या मतलब है, समझ में नहीं आता. कहीं ऐसा तो नहीं कि ठाकरे बंधुओं के साथ मंच पर आते-आते आपको भी खून बहाने की परंपरा अच्छी लगने लगी है. या फिर आपको लगता है कि जबतक आपकी महान क्रिकेट गाथा खून से लथपथ नहीं होगी, लोगों को मज़ा नहीं आएगा.

वैसे ये पूरा खूनी खेल आपने पैसों के लिए खेला है, ऐसा मालूम देता है. वरना सचिन के खून वाली किताब सबको मिलती. हालांकि ऐसा है नहीं, कुल 10 किताबों में ही आपका खून झलकेगा. कागज की लुगदी खून में सानी जाएगी. पहला पन्ना रक्ताभ नज़र आएगा. 852 पन्नों वाली ये 10 विशेष किताबें लगभग साढ़े तीन लाख रूपए की होंगी. यानी 10 किताबों के लिए 35 लाख मिलेंगे.

सोचिए, अगर 50-100 ग्राम खून के लिए मास्टर ब्लास्टर इतनी कीमत लेने जा रहे हैं तो उस व्यक्ति से सचिन कितने पैसे ले लेंगे जिसे वो खून का एक यूनिट इलाज के दौरान देंगे. कल को सचिन अगर अपना खून किसी को देने की सोचें और वो उसका मूल्य देना चाहे तो आंकड़ा करोड़ से ऊपर जा सकता है. जिस खेल को आपने खेल की तरह खेला है (शायद मैं ग़लत हूं), उसे अब खूनी खेल में बदल देने की क्या ज़रूरत थी सचिन. तुम्हारे इस खेल से तुम्हारा कोई भी प्रशंसक शायद ही खुश हुआ हो…

Written By पाणिनि आनंद

जा तुझको सुखी संसार मिले


एक पिता अपने एमबीए और मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली अपनी बेटी के लिए योग्य वर की तलाश में धावक बना हुआ है.धावक इसलिए कि जैसे ही किसी योग्य वर के बारे में पता मिलता है तो तुरंत चाहे शहर,राज्य देश के किसी कोने में हो तुरंत पहुंच जाते हैं. योग्यता का पैमाना ये है कि लड़का उच्च शिक्षित हो,अच्छा कमाता हो,अच्छा परिवार हो..वगैरह..वगैरह..जैसा एक आम मध्यमवर्गीय परिवार के पिता की इच्छा होती है..बिलकुल वैसे ही..

दृश्य नंबर 1- लड़की का पिता मिठाई-फल लेकर..दो बड़ी कार में अपने कुछ भारी-भरकम रिश्तेदारों के साथ एक वर की तलाश एक परिवार में मिलने जाता है…(ये सारे तामझाम किए जाते हैं इम्प्रेशन जमाने के लिए..जैसा आप सभी समझ रहे हैं)..

दृश्य नंबर 2- लड़के के घर में भी लड़की वालों के स्वागत के लिए काफी इंतज़ाम किया गया है. लड़की के पिता अपने रिश्तेदारों के साथ बैठक में दाखिल हो रहे हैं…जलपान वगैरह के साथ राजनीति..वगैरह पर चर्चा हो जाने के बाद दोनों पक्ष के लोग मुख्य मुद्दे पर आते हैं..यानी लड़की के बारे..लड़के के बारे में बातचीत..जो इस पूरी कवायद का मुख्य एजेंडा है…कई बातों के बीच लड़के के पिता ने पूछा कि आपकी बेटी तो नौकरी कर रही है..मेरा बेटा तो ऐसी नौकरी में है जहां अक्सर तबादला होता रहता है.ऐसे में क्या आपकी बेटी नौकरी करती रहेगी….लड़की के पिता का तुरंत जवाब आता है कि ये तो आपकी मर्जी है साहब..शादी के बाद तो उसे क्या करना है,क्या नहीं करना है उसका निर्णय तो आप ही लेंगे. थोड़ी और बातचीत के बाद..सोच कर बताते हैं…पहले कुंडली मिलवा लेते हैं…बड़े भाई साहब से पूछ लेते है..बेटा भी आ जाए फिर लड़की देख ले…वगैरह-वगैरह..लड़की का पिता स्प्रिंग लगे गुड्डे के तरह लगातार हां..हां..में सर हिलाता हुआ..वहां से विदा ले लेता है..

दृश्य नंबर 3- लड़की की मां से पिता सारी बातों के बारे में खुश होकर बताता है..और पॉजिटिव रिस्पांस लग रहा है ..ऐसा कहकर आगे की तैयारी में जुट जाता है.लड़की दूसरे कमरें में बैठी सारी बात सुन रही है..वो अचानक अपने पिता के सामने आकर कहती है कि आपने ये कैसे कह दिया पापा कि आगे मै क्या करुंगी,क्या नहीं, इसका फैसला वो लोग लेंगे…फिर मेरी रात भर जागकर पढ़ाई करने का क्या मतलब हुआ..दिन-रात अथक परिश्रम करके जो मैने अपने बूते पर नौकरी पायी है,उसका क्या मतलब..जब कैरियर बनाने का निर्णय मेरा था,मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करने का निर्णय मेरा था..नौकरी करते रहने का फैसला उनका कैसे हो सकता है…क्या आपने भी लड़के के पिता से पूछा कि आपके बेटे से मेरी बेटी की तनख्वाह ज्यादा है क्या शादी के बाद नौकरी छोड़ने का निर्णय उनका बेटा ले सकता है ?

पिता अवाक रह जाता है…उसके सामंती दिमाग में अपनी आज्ञाकारी बेटी के ऐसे रुप की उम्मीद नहीं थी..लेकिन फिर अपने को सम्हालते हुए कहता है कि बेटीअच्छा घर वर है..ऐसी बाते तो करनी ही पड़ती हैं..आखिर सब तेरे खुशी के लिए ही तो कर रहा हूं..लड़की फिर बिफरती है कि आपको कैसे पता कि मेरी खुशीकिसमें हैं..आपने कभी पूछा…सिर्फ पढ़ने की आज़ादी दी..नौकरी करने की,चुनने की आज़ादी दी…आप कैसे भूल गए कि इस आज़ादी में मेरी भावनाएं आज़ाद नहींहुई होगी…इस पूरे सफर में कोई ऐसा नहीं मिला होगा..जिससे मै भावनात्मक रुप से जुड़ भी सकती हूं…आपकी खुशी के लिए मै आप के हिसाब के लड़के से शादी तो कर सकती हूं..लेकिन नौकरी नहीं छोड़ सकती? लड़की का पिता सदमे की हालत में है….

लड़की के इस एलान के बाद घर में उसी तरह रिएक्शन है..जैसे भारत-पाक शांति वार्ता के बाद…पिता पहले तो उस पर पाकिस्तानी अंदाज़ में तमाम आरोप मढ़ता है..कुढ़ता हैं…कि आखिर इतनी आज़ादी दी ही क्यों…इतना पढ़ाया-लिखाया क्यों…फिर अपना राग अलापने लगता है बेटी मैने ज़िंदगी भर तुम लोगों को कोई कमी नहीं होने दी…कुल मिलाकर पिता फिर मां को बिचौलिया बना कर अपनी बात मनवाने की कवायद शुरु कर देता है….

लब्बोलुआब यही है कि अभी बदलाव लाने में…आज़ादी के मायने समझने-समझाने में कई बरस और लगेंगे..चाहे वो आम ज़िंदगी में हो या फिर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर…देश के राजनीतिज्ञों और अफसरों से भी यही गुजारिश है कि अवाम को क्या पसंद है क्या पसंद नहीं है इसका निर्णय वो कैसे ले सकते हैं….भारत-पाक के अवाम से पूछ कर देखिए….वोटिंग करवा लीजिए..शांति वार्ता का सबसे आसान तरीका मिल जाएगा….

Written by pratibhak rai

सैंय्या तो खूब ही कमात है…



मौजूदा दौर में इससे ज्यादा बेहतर महंगाई की चुभन को शायद कोई नहीं बयान कर सकता कि ‘सखी सैंय्या तो खूब ही कमात है’…… ठीक ही कहा है कि सारी कमाई एक तरफ और बढ़ती मंहगाई एक तरफ।

यह बेतहाशा महंगाई का ही आलम है कि कितना भी कमा लें इस सुरसा जैसी मंहगाई के दानव के आगे सब स्वाहा है।

सब्जी़,दाल ,तेल, घी,पेट्रोल ,डीज़ल, यात्री किराया,रोज़मर्रा के खर्चे किस किस मोर्चे की बात करें महंगाई तो हर मोर्चे पर आम आदमी की खून चूसने को बांहे खोले खड़ी है और डराती है कि किस तरह से मेरे चंगुल में खुली सांस लेने को हिमाकत करोगे।

आम आदमी क्या चाहता है कि कैसे इज्ज़त के साथ उसके परिवार का पेट पल जाये उसके खर्चे पूरे पड़ जायें, मगर क्या करें महंगाई डायन खाये जात है…….मंहगाई की मार ने आम आदमी के पेट पर लात मारी है पेट भरने को जरुरी राशन, सब्ज़ी, तेल घी, रसोई गैस आदि चीजों पर सबसे ज्यादा मार पिछले कुछ समय में पड़ी है।

घर से लेकर बाज़ार तक सब जगह एक ही आग है, महंगाई की आग। हालांकि ये आग हमेशा से आम जनता को जलाती आ रही है लेकिन इस बार तो हद हो चुकी है।

पेट्रोल डीज़ल के दाम क्या बढ़े, घर की रसोई से सब्ज़ियां ग़ायब होने लगीं। चावल, दालें और आटे की दाम ने तो घर का बजट बिगाड़ रखा है। आम आदमी करे तो क्या करे, मजबूर है महंगाई की आग में जलने के लिए।

सरकार खामोश है उसे पता है कि महीने-दो महीने में तो जनता को महंगाई की आदत पड़ ही जाएगी। पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ने के बाद उसका असर हर चीज़ की क़ीमत पर पड़ने लगा है। ट्रक मालिकों ने माल भाड़े में बढोत्तरी का फैसला लिया और बाज़ार में डीज़ल की मार नज़र आने लगी।

बताने की जरुरत तो नहीं पर चीनी की कड़वाहट का जिक्र करना बेहद लाज़िमी है जिसके चलते आम आदमी के बजट का दीवाला निकला तो मुनाफाखोरों की हर दिन दीवाली मनाना किसी से छिपा नहीं है।

दूध के बढे दामों से बच्चों की खुराक में कटौती करनी पड़ी है ।महंगा डीज़ल पेट्रोल, महंगा राशन,मंहगी सब्ज़ियां, महंगा किराया, महंगी शिक्षा, कोई भी ऐसा मोर्चा नहीं जहां आम आदमी इससे पार पा सके।

ऐसा नहीं है कि महंगाई के मोर्चे पर आम आदमी का साथ देने कोई नहीं खड़ा है विपक्षी दल है ना इसमें उसका साथ देने के लिए। उसके लिए चाहें बंद का सहारा लेना पड़े चाहे कोई आंदोलन चलाना पड़े।

हालांकि ये दीग़र बात है कि इन्हें भी आम आदमी का ख्याल तभी आता है जब वो सत्ता की मलाई का स्वाद लेने से वंचित होते हैं।यह भी किसी से छिपा नहीं है कि इस तरह के काम करने का मकसद किसी भी तरीके से अपने लिए सत्ता वापसी की राह को आसान बनाना भर है।

‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ’ का नारा देकर सत्ता का सुख दोबारा भोग रही कांग्रेस पार्टी का एजेंडा तो साफ है कि तुम मुझे सत्ता दो मैं महंगाई का इतना बोझ दूंगी कि तुम्हारी कमर झुकी ही रहे।

चलूं थैला भरके रुपये लेकर थैली में कुछ राशन और सब्ज़ी ले आंऊ खाने का इंतज़ाम कर लूं क्योंकि गाने की लाइन डरा रही है कि महंगाई डायन खाये जात है…….

Written by रवि वैश्य

विश्वकप का हीरो है पॉल

विश्वकप फुटबॉल के इतिहास में यह किसी कमाल से कम नहीं है कि जिस खेल में पहले लोग खिलाड़ी का नाम देखते थे, जर्सी का नंबर देखते थे, देश का झंडा देखते थे, उसी खेल के दुनियाभर में फैले लाखों-करोड़ों प्रशंसक पिछले कुछ दिनों से यह देख रहे हैं कि मिस्टर पॉल कहाँ बैठेंगे.

अरे पॉल को तो जानते ही होंगे. मिस्टर पॉल, जिन्होंने भारत और चीन सहित दुनिया के तमाम ज्योतिषाचार्यों के गणना सूत्रों को ध्वस्त कर दिया है. जिन्हें आप स्टूडियो में बुलाकर उन्हें बहसतलब नहीं कर सकते, पर उनके बिना कोई भी स्टूडियो विश्वकप फुटबॉल की बात पूरी नहीं कर पा रहा है. ये मिस्टर पॉल हैं अष्टभुजा ऑक्टोपस, जो जिस देश के डिब्बे पर तैरते हुए बैठ जाते हैं, भाग्य वहीं ठहर जाता है.

पिछले कुछ दिनों में जब एक के बाद एक ऑक्टोपस की भविष्यवाणियां सही होती गईं, लोग इस भविष्य का सच आंककर सामने रख देने वाले ऑक्टोपस पर नज़र गड़ाकर देखने लगे. ऑक्टोपस पर भी नज़रें उतनी टिकी रहती हैं, जितनी मैदान पर गेंद की चाल पर. अजेय अर्जेंटीना की जर्मनी के हाथों करारी हार से इस ऑक्टोपस का मान और स्थापित हो गया. रही सही कसर पूरी कर दी स्पेन और जर्मनी के मैच ने. विश्वकप में अभी तक का सबसे शानदार प्रदर्शन करती आ रही और विश्वविजेता रह चुकी टीम जर्मनी के जीतने को लेकर कम ही लोगों के मन में संशय था. 7 जुलाई को जब जर्मनी स्पेन से हारा तो हर तरह स्पेन-स्पेन नहीं, ऑक्टोपस-ऑक्टोपस सुनाई दे रहा था.

हर विश्वकप का यादगार हीरो कोई न कोई खिलाड़ी ही होता है पर इस विश्वकप में मैराडोना, पेले, जिदान, रोनाल्डो जैसी प्रसिद्धि किसी खिलाड़ी को नहीं, एक ऑक्टोपस को मिल गई है. सचमुच पॉल हीरो बन गया है विश्वकप का. फ़ाइनल के सटोरिये टीमों के कौशल और रणनीति से ज़्यादा ऑक्टोपस के करवट पर बोली लगाने वाले हैं.

पर विश्वकप के बाद पॉल क्या करेगा… मेरे पास बहुत से ऐसे सवाल हैं जिन्हें मैं वैश्विक हित में पॉल के ज़रिए सुलझाना चाहता हूं. मसलन, पॉल को अगर अमरीका और ओबामा का विकल्प दें तो किसकी जीत की ओर पॉल का इशारा होगा. नक्सलियों और चिदंबरम साब की सफलता के कयास पर पॉल का क्या कहना है. अयोध्या में मंदिर बनेगा या पुलिस चौकी, इराक़ में शांति आएगी या नहीं, इसराइल और फलस्तीन में आखिरी जीत किसकी होगी, अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी अभियान कभी सफल होगा भी या नहीं, तालेबान ज़्यादा नुकसानदायक है या अमरीका का एकात्म वर्चस्ववाद. मायावती और सोनिया में ज़्यादा ताकतवर कौन है, भोपाल का असली गुनहगार कौन है, इस्लाम बनाम ईसाइयत की जंग में आखिर कौन बचेगा, भारत कभी हिंदूराष्ट्र बनेगा या नहीं. कश्मीर किसके हिस्से जाएगा या अनाथ रह जाएगा… ऐसे न जाने कितने ही सवाल हैं मेरे जेहन में और दुनियाभर में करोड़ों लोग इससे प्रभावित हैं.

सोचता हूँ, भविष्यवाणियों और ज्योतिष को गाली देने की अपनी आदत छोड़ू और पॉल से अब ये सारे सवाल पूछ डालूं.

Written By पाणिनि आनंद

आम आदमी क्या चाहता है...


दुनिया में दो तरह के लोग होते है अच्छे या बुरे, बस। इंसानों में बस इतना ही फर्क होता है। कोई हिन्दु,मुसलमान,सिख या ईसाई नहीं होता। आ॓शो भी कहते हैं मैं धार्मिकता सिखाता हूं धर्म नहीं। हमारा धर्म प्रेम करना है,परमात्मा को पाना हैं,मज़हब के नाम पर खून बहाना नहीं। धर्म एक आस्था है वो किसी के लिए भी हो सकती है। रास्ते में, एक मासूम बच्चे को मंदिर के सामने हाथ उठा प्रार्थना करते देखा हाथ ठीक वैसे ही जुड़े थे जैसे खुदा की इबादत में होते हैं क्या लोगों ने इसे समझाया नहीं भगवान- खुदा अलग है या यही मासूमियत प्रेम है भगवान है… खुदा है… जो आज इंसानो से जुदा है।

अभी कुछ दिन पहले खबर देखी हवाई यात्रा के दौरान एक लड़की ने बगल में बैठे मुस्लिम यात्री की शिकायत पुलिस को कर दी। उसे शक था कि यह मुसलमान आतंकवादी हो सकता है क्योकीं वह कह रहा था (हवाई जहाज उड़ने वाला है,वह भी उड़ने वाला है)एक तो मुसलमान ऊपर से ऐसी भाषा किस को शक नहीं होता। बस क्या था हड़कंप मच गया फौरन उसे कस्टडी में लिया गया। एक लंबी पूछताछ और उसके परिवार वालों की दलीले सुनने के बाद, उसे निर्दोष पाकर छोड़ दिया गया।

इससे मिलती-जुलती दूसरी घटना तो मेरे आंखों के सामनें की ही है। मैट्रो स्टेशन पर मेरे बाद सामान की चैकिंग में एक सुन्दर कश्मीरी मुसलमान लड़का फोन पर किसी से आम तौर पर बात कर रहा था,पुलिसवालों ने उसे देखते ही अलग कोने में ले जाकर विशेष तौर पर चैकिंग की। दोनों ही घटनाएं दिलचस्प है। सच कहूं तो उस वक्त मुझे हंसी भी आई।

लेकिन अगर मामले की गंभीरता को देखा जाए तो आम लोगों के दिल की स्थिति क्या हो चुकी है। हमारे मन में दहशत इस कदर घर चुकी है किसी का पहनावा,भाषा हमें इतना डरा सकता है कि मुसलमान को देख हमें उसमें आंतकवादी नज़र आने लगे। क्यों ना हो आए दिन मिलने वाली खबरें,आतंकियों की नज़रे बाजार पर,आतंकवादी मेट्रो स्टेशन पर हमला कर सकते हैं,आंतकवादी बच्चों के स्कूल भी उड़ा सकते है। अब हम डर चुके हैं, इतनी जानें खोकर।

कौन हैं ये आंतकवादी….जिन्होनें ज़ेहाद के नाम पर आतंक मचा रखा है। क्यों इस कदर मासूमों का खून बहाते है..प्रश्न का उत्तर सब जानते हुए भी खामोश हैं। आंतकवादियों की ट्रेनिंग में सिखाया जाता है,जो जितनी ज्यादा जानें लेगा उसे ज़ेहाद के प्रति उतना ईमानदार समझा जाएगा,और जो धर्म का काम करते हुए शहीद हो जाएगा उसे जन्नत नसीब होगी। उसके परिवार वालों का हर तरह से ख्याल रखा जाएगा। किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं होगी, पैसा कमाने के लिए कोई जद्दोजहद नहीं।

26/11 का हमला कौन भूल सकता है, हाल ही में उसके आरोपी आतंकवादी कसाब को फांसी देने का फैसला सुनाया गया। फैसले को सुन बस यही ख्याल आया (आज कसाब कल कौन?) ये आतंकवादी तो मात्र कठपुतली है, डोर तो किसी और के हाथ में हैं। गरीब मुसलमानों को ज़ेहाद के नाम पर गलत शिक्षा दे ये वहशी अपने फायदे के लिए एक आम आदमी को दूसरों का खून करने वाली मशीन बना देते हैं। ज़ेहाद,धर्म, पैसों,का हवाला दें ये उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं।

…पर प्रश्न यह है कि एक आम आदमी क्या चाहता है,दो जून खाना जुटाने की जद्दोजहद वाला आदमी। आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ती में जी-जान से लगा आदमी,चैन की सांस चाहने वाला आदमी,आखिर कितनी ळड़ाई चाहता है। कितने लोग जे़हाद के पीछे पागल है। सियासत की बीसात पर बाजी खेलने वाले चंद लोग, ना जानें कितने कसाब जैसे लोगों की जिंदगी के साथ खेल जाते हैं और हम जड़ खत्म करने की बजाय बस इस पर चर्चा करते रह जाते हैं।

दहशत के माहौल में अब इस आम आदमी का दम घुटता है,वो धर्म या जाति के आधार पर कोई लड़ाई नहीं चाहता।…और परिवार गवांने की हिम्मत नहीं है उसमें।

कोई तो आये, जो इसे इसे शांति व सुरक्षा का भरोसा दे…

Written by pooja Batra